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करुणा की प्रतिमूर्ति- मदर टेरेसा
जीवन परिचय:-
एग्नेस गोनक्सहा बोजाकसहियू 27 अगस्त 1914 को यूगोस्लाविया के शहर स्कोपजे में जन्मी थी। माता-पिता दाना और निकोला बोजाकसहियू अल्बेनियन थे और रोमन कैथोलिक थे। उन्होंने अपने तीसरे बच्चे का स्वागत बड़े धूमधाम से किया। एगनेस की बड़ी बहन अगा और भाई लजार थे। निकोला एक सफल व्यापारी थे जो स्कोपाजे नगर परिषद के सदस्य भी थे। निकोला चाहते थे कि उनकी बिटिया अच्छी तरह शिक्षित हो।
मदर टेरेसा के पिता निकोला की मृत्यु ने बोजाकसहियू परिवार का भाग हमेशा के लिए बदल दिया। द्राना अपनी खर्च चलाने के लिए सिलाई करने लगी। इसके बावजूद वह जरूरतमंदों की सहायता के लिए अतिरिक्त समय और धन निकाल ही लेती थी। जब वह भी मारो और गरीबों से मिलने जाती एगनेस उनके साथ होती थी। मां की दयालुता ने उसे बहुत प्रभावित किया। बहुत छोटी उम्र से ही एग्नेस पढ़ना, कविताएं लिखना, गाना और प्रार्थना करना पसंद करती थी और टीचर बनना चाहती थी। 14 साल की हुई तो समझी वह एक धार्मिक जीवन जीना चाहती है।
1998 में जब 18 साल की थी एगनेस ने अपना जीवन भगवान और सेवा के लिए समर्पित करने का निर्णय लिया और आयरलैंड के डबलिन में लोरेंटो सिस्टर्स की सभा में शामिल हो गई। इग्नेश भारत के दार्जिलिंग में ननों के लोरेंटों सिस्टर्स के क्रम को स्थापित करने के लिए यहां आ गई।
1931 में एग्नेस ने सिस्टर्स टेरेसा के रूप में अपनी प्रतिज्ञा ली। उन्हें एक शिक्षिका के रूप में एक स्कूल में नियुक्त किया गया। हर रोज व बाहर जाती और सड़कों व गलियों में लोगों की पीड़ाओं को देख गहरा दुख अनुभव करती। वह लोगों की सेवा करनी चाहती थी लेकिन लोरंटों वर्ग की ननों के नियमानुसार आश्रम छोड़ने की मनाही थी।
1946 में सिस्टर टेरेसा ने अपनी आंतरिक आवाज सुन ली और वह स्पष्ट थी कि भगवान उनसे क्या करवाना चाहता है? आखिरकार 1948 में चर्च और आर्डर ऑफ लॉरेंटों सिस्टर्स ने सिस्टर टेरेसा को लोगों के बीच काम करने की अनुमति दे दी।
नीली बॉर्डर वाली कॉटन की सफेद साड़ी पहने सिस्टर टेरेसा मेडिकल मिशनरी सिस्टर्स से चिकित्सकीय कौशल सीखने के लिए पटना के लिए निकल गई। पटना में वह मृत और बीमार लोगों के घरों का दौरा करती। वह स्थानीय अस्पताल भी जाती और सीखती। 3 महीने के भीतर सिस्टर टेरेसा वापस कोलकाता आ गई। उन्होंने फादर वान एकजेम से संपर्क किया, जिन्होंने लिटिल पुअर्स द्वारा चलाए जा रहे सेंट जोजेफ होम में उनके रहने की व्यवस्था कर दी। कुछ समय तक सिस्टर टेरेसा ने सहायता की और बुजुर्गों की सेवा भी की।
एक दिना 1948 में सिस्टर टेरेसा कोलकाता की गलियों में निकल पड़ी। उन्होंने सबसे पहले मलिन बस्ती में जाने का निर्णय लिया और वहां एक स्कूल शुरू किया। सिस्टर टेरेसा उन लोगों को ढूंढ रही थी जिन्हें सहायता देखभाल या सहयोग की आवश्यकता है। वाशी हर गई जब उन्होंने गरीबी, बीमारी और बद्दतर चिकित्सकीय सुविधाएं को देखा।
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जब सिस्टर टेरेसा के भीतर आंतरिक संघर्ष चल रहा था, भगवान ने उनका विश्वास एक बार फिर स्थापित कर दिया। सिस्टर टेरेसा की एक विद्यार्थी मैगडालेना गोम्स अपनी दयालु शिक्षिका को भूल नहीं पाई और उनके साथ सेवा के कार्यों में शामिल हो गई। हर दिन हुए कोलकाता की सड़कों पर निकल जाती उन लोगों की खोज में जिन्हें सहायता या देखभाल की जरूरत है।
सिस्टर टेरेसा की मानवता के लिए प्रेम की शक्ति ही थी जो 1 साल के अंदर ही 10 लड़कियों को उनके पास खींच लाई।
उन्होंने जीवन को सेवा के लिए समर्पित कर दिया। 1949 में सिस्टर टेरेसा ने भारत की नागरिकता लेने का फैसला किया। 1950 में वह मदर टेरेसा बन गई और चर्च ने आदेश दिया कि वह अपने ऑर्डर ऑफ नन्स को शुरू कर सकती है जो मिशनरीज ऑफ चैरिटी के नाम से जाना जाएगा।
चाहे परित्यक्त बच्चे हो, मरते हुए या कुष्ठ रोगी हो, मदर टेरेसा ने सब को भगवान के बच्चों के रूप में देखा और उनकी देखभाल की। उन्होंने लोगों को प्रेरित किया कि पैसा मकान, दवाइयां और दूसरी जरूरत की चीजें दान करने के लिए आगे आएं। लगभग 10 वर्षों में मिशनरीज ऑफ चैरिटी ने भारत में कई जगह होम्स खोलें। दान इकट्ठा करने के लिए दूसरे देशों का दौरा भी किया। एक बार एक विचार आया और उन्होंने मेंस विंग की स्थापना की, जिसे मिशनरी ब्रदर्स ऑफ चैरिटी नाम दिया गया। ब्रदर्स उन क्षेत्रों में काम करते थे जहां सिस्टर्स प्रवेश नहीं कर सकती थी।
पोप ने 1962 में मिशनरीज ऑफ चैरिटी को भारत के बाहर कार्य करने की इजाजत दे दी। मदर टेरेसा ने उत्तरी-दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका, एशिया और यूरोप में लोगों की सेवा करना शुरू कर दिया। मदर टेरेसा को छठे पॉप पॉल के हाथों पोप जॉन XXIII शांति पुरस्कार प्राप्त हुआ। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति केनेडी ने उन्हें जोजेफ केनेडी फाउंडेशन अवार्ड से सम्मानित किया।
1973 ईस्वी में धार्मिक क्षेत्र में प्रगति के लिए उन्हें टेंपलेटन पुरस्कार प्राप्त हुआ, लेकिन उनका सर्वोच्च यश तो 1979 में आया, जब उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 3 महीने के भीतर ही उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से भी सम्मानित कर दिया गया।
सितंबर 1997 मदर टेरेसा ने अंतिम सांस ली और संसार के लिए सच्चे प्रेम और सेवा की विरासत छोड़ गई। आज मदर टेरेसा हमारे बीच नहीं होते हुए भी हमारे बीच है और सदा रहेंगी। ऐसे महान आत्मा को मेरा सत्-सत् नमन है।
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